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रिंकू की कविताएं

मैं एक लड़की, एक दुसाध-दलित लड़की, एक मध्यम वर्ग से आने वाली लड़की, जो घर को घर जैसा नहीं देखती, घर क्या है नही समझती, और परिवार कौन और कैसे बनता है इस खोज में हूं। मेरे लिए घर के मायने बदल रहे है, परिवार के मायने बदल रहे है। 

Illustration by Ajinkya Dekhane

‘एक घर मां बाप से बनता है, जहा छोटे बड़ो का सम्मान करते है, बड़े छोटो से प्यार करते है, और सब एक साथ रहते है, और घर को और उसकी मर्यादाओं को बनाए रखते है।’

जभी किसी से घर के बारे में पूछा है, यही जवाब मिला, फिर ऐसा मन बना ही लिया की घर में एक पति और पत्नी होंगी, उनके बच्चे होंगे और एक मुखिया होगा, इत्यादि। बड़े होते हुए महसूस हुआ यह घर लोगो और ईट पत्थरों के अलावा भी कुछ चीजों से बना होता है- प्यार, साथ, खुशियां। कुछ और बड़े होते हुए जाना की घर को घर और कैसे बनाया जा सकता है – अधिकारों की भाषा, सम्मान और सहजता की सोच, संवेदनशील सोच।

अब फिर कुछ बड़े होते होते जाना है, बल्कि सवाल आया है- कि यह घर है क्या, जब हम नारीवादी सोच की बात करते है, एलoजीoबीoटी समुदाय की बात करते है, क्या यह घर की तस्वीर पुरानी, खोखली, एकांतिक (एक्सक्लूसिव), नही है, और शायद एक ही जाती, वर्ग के लोगो की सोच है- एक सुखी घर और परिवार।

मैं एक लड़की, एक दुसाध-दलित लड़की, एक मध्यम वर्ग से आने वाली लड़की, जो घर को घर जैसा नहीं देखती, घर क्या है नही समझती, और परिवार कौन और कैसे बनता है इस खोज में हूं। मेरे लिए घर के मायने बदल रहे है, परिवार के मायने बदल रहे है। नारीवादी सोच की ‘person is political’ इसमें घर की एक प्रतिमा को चुनौती देना और बदलना है, इसपर मेरे घर को अवसाद की साइट (site |of depression) के रूप में समझते हुए, यह कविताएं है जो मेरे जीवन में घर को लेकर आए बदलाव के बारे में कोशिश करता है बताने की कि घर भी एक पितृसत्तात्मक सोच से ज्यादा कुछ नही है, और वैकल्पिक परिवार (alternate family) भी परिवार हो सकता है इस सोच की खुद में एक शुरुवात है।

घर: कविताओं की श्रृंखला

1/

सोना चाहती हूं
काम से थकी हुई,
घर आ सोना चाहती हूं,
आराम से खाना साथ में खा,
सोना चाहती हूं।
बिना चिल्लाए, बिस्तर पर आ,
सोना चाहती हूं।
ताने, इल्जामों, गलियों की थाली,
छोड़ कभी प्यार भी चाहती हूं,
काम से थकी हुई,
घर आ सोना चाहती हूं।

2/

मैने देखा है
मुर्दा ईट पत्थरों पर जीते लोगो का दफ़न होना,
कमरे से निकलते हुए बाहर गलियों में उसे ढूंढना,
सोचना की चंद लोगो से बनता है वो,
और अनजान रास्तों पर उसका मिलना,
कभी सालो के रिश्ते से भी न बने,
और पलो की बातों में किसी के ढूंढ लेना उसे,
मैने देखा है खुद को कंबल में चिलाते हुए,
कही दूर उस जगह मौजूद शख्स के आंखो में मेरा दर्द पढ़ना,
मैंने देखा है लेते रहना चित या सामने मां के,
और खोजना ठीक उसी वक्त मां को बाहर दरवाजे के
मैने देखें है कुछ अपने लोग यहां
मैने देखा है खुद को अनजान यहा
मैने देखा है घर,
घर से बाहर
कुछ बार,
कई बार,
अब…. हर बार।

3/

एक आपके जाने से अब क्यों ये इमारत खाली लगता है,
मानो बना दिया हो ईट, सीमेंट से
और रॉड से खड़ा कर दिया हो ढांचा कोई खोखला,
जहा अब परिवार के नाम पर है कुछ फैमिली पेंशन में शामिल नाम,
एक बीवी जो शायद नहीं है किसी की मां,
एक बहन जो है जुबान होते हुए भी गूंगी,
एक भाई जो चाहता है एक चश्मा जिससे देख सके वो उस घर को जो शायद पहले भी नही था घर,
और मैं जो डरती है सांझ से, घर आने से
और खुश है वो बाहर से,
उन गलियों से जहा वो देखती है घर,
जो अभी भी मजदूर बना ही रहे है,
जहा छत ना होते हुए भी,
साथ है एक साया अपनो का
जहा भूखे होते हुए भी जीवन में है पूर्ति,
ये घर जो अब घर नहीं रहा पूरे तौर पर,
कभी-कभी सांझ होते सोचती हूं,
आया जाए क्या इस जगह फिर?
जहा आप नहीं है,
बाप नही है,
मां नही है,
घर नहीं है,
एक इमारत है पराया सा,
बस एक चीज है अपनी,
वो लटकी तस्वीर आपकी दीवार पर,
मुस्काते हुए,
शायद इस बात पर की
ये इमारत सच मूच ही है अब पूरी तरह,
मृत, अशांत, और दिखावट के लिए
घर।

4/

घर की बात है,
घर पर रखना,
पर फिर मैने सोचा घर पर,
या घर जैसे घर पर
घर पर, घर सा कुछ भी नही है,
घर की बातें घर की नही है,
घर है क्या या कुछ भी नहीं है,
एक है घर या वो भी नही है,
वो है जहा मां बाप है रहते?
घर क्या वो जो रोड पर भी मिलते?
पर क्या रोड पर भी कोई घर है?
घर है भी या वो भी नही है?
कही भी है या कही नही है?
या हर जगह घर ही घर है?
घर को घर पर ढूंढा – ढूंढा
बाहर देखा, गली में झांका,
ढूंढा जहा तक घर की सीमा,
उससे आगे भी कुछ देखा,
मिला नही पर घर कही पर
अभी भी ढूंढू घर है कहा पर,
अब थक कर मैं बैठ गई हूं,
यही पर घर जैसे कही पर,
अभी बाकी, खूब है तकना,
कहा है वो,
जो सच में लगे घर।

5/

कैसा होता है मरने से पहले मर जाना,
सांसों का चलना, धड़कना दिल का भी,
ना रूह का होना है मर जाना,
बीता देना दिन यू ही बस सोच में
रातों की चिलाहट को दबाने के तरीके,
सुबह फिर उठाना मुर्दा जिस्म को खुद के
जीने चल पड़ना फिर सांझ को मरने,
देखना घंटो आसमान में,
खोजना भूले बिसरे लोगो को,
कैसा होता है खाना परोसे हुए तानो को,
और पीना कांबलो में आंसुओ को,
और फिर उठ चल लेना लाश लिए,
हंसी लिए कुछ सच्ची – झूठी,
कैसा होता है,
घर का घर न रहना।

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